Monday, January 7, 2008

हर एक सुबह.

बुनते उम्र के धागे से गुथा बंधा
माँ के आँचल से बाहर सर्दी मे सुबह
जब उस छोटे लेकिन अपने से
आँचल मे थामे
था मैं
तब, पूरी दुनिया वाही, सिमट गयी थी
अब भी मैं ही हूँ फिर क्यों वही
आंखो से निकल दूर तक फैल गई
लोट नही सकता जो वह मेरा था
बस सपना बनकर खुलना है हर दिन
हर एक सुबह.

1 comment:

Poonam Agrawal said...

ye panktiyan maa ke pratee agaadh prem kee prateek hai. Bahut sunder.