Saturday, April 24, 2010

कमी सी है....


युँ तो बहुत कुछ है पास मेरे फिरभी कुछ कमी सी है
घिंरा हूँ चारो तरफ़ मुस्कुराते चेहरो से
फिर भी जिन्दगी में उजाले भरने वाली उस मुस्कुराहट की कमी सी है
दिख रही है पहचान अपनी ओर उठते हर नज़र में
फिर भी दिल को छु लेने वालि उस निगाह की कमी सी है
गुँज़ता है हर दिन नये किस्सो, कोलाहल और ठहाको से
फिर भी कानो में गुनगुनाति उस खामोशी कि कमी सी है
बढ़ रहे है कदम मेरे पाने को नयी मन्ज़िलें
फिर भी इन हाथो से छुट चुके उन नरम हाथो की कमी सी है.....
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चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला, मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला... बड़ा दिलकश, बड़ा रंगीन है ये शहर कहते हैं, यहाँ पर हैं हजारों घर, घरों में लोग रहते हैं, मुझे इस शहर ने गलियों का बंजारा बना डाला... मैं इस दुनिया को अक्सर देख कर हैरान होता हूँ, न मुझसे बन सका छोटा सा घर दिन रात रोता हूँ, खुदाया तूने कैसे ये जहाँ सारा बना डाला... मेरे मालिक मेरा दिल क्यूँ तड़पता है, सुलगता है, तेरी मर्ज़ी- तेरी मर्ज़ी पे किसका जोर चलता है, किसी को गुल, किसी को तूने अंगारा बना डाला... यही आगाज़ था मेरा, यही अंजाम होना था, मुझे बर्बाद होना था, मुझे नाकाम होना था, मुझे तकदीर ने तकदीर का मारा बना डाला... चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला, मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला...